चोटी की पकड़–19

"गुस्ताखी मुआफ फर्माएं। रंडी का मकान समझकर कितने ही लुच्चे आते हैं। 


हमें पेशबंदी रखनी पड़ती है।

 सरकारी काम की पाबंदी हमें कुबूल है, लेकिन वह कैसा सरकारी काम है, यह आप उन्हीं से कहेंगे, मैं उनका सेक्रेटरी हूँ, मुझसे नहीं; मेरे सामने भी आपको कहना मंजूर नहीं। 

ऐसी हालत में भी आपको लुच्चा न समझकर सरकारी काम से आया हुआ अफसर समझूँ।

 मैंने कहा, वह नौकर हैं, खातून की तरह रहती हैं। 


इस पर भी आपने एक तुर्रा कस दिया। 

एक भले आदमी की तरह इतना समझने की तकलीफ भी आपको गवारा नहीं हुई कि जिन्होंने मालिका-मकान को नौकर रखा है, 

उन्हें उनकी बेपर्दगी पसंद न होगी, दोनों में नौकरी की शर्तें होंगी।"

"मैं समझा। अफसर को गाली आपने दी। अफसर क्या है, यह आपको अच्छी तरह मालूम होगा। 

अफसर इस तरह नहीं आता, न यों जवाब देता है। वह अपनी जगह पर बुलाएगा और नौकरी की कुल शर्तों को तोड़कर खातून साहिबा को चलकर मिलना होगा। 

उस वक्त हम कुछ ऐसी तैयारी ला देंगे कि खातून साहिबा उम्र-भर याद रखेंगी। हम कोई हैं और दर्ज होकर आए हैं। 

लौटकर कुछ लिखेंगे और भेजेंगे। आप सिकत्तर हैं, इसलिए मिल सकते हैं, और हम सरकारी काम से आए हैं, इसलिए नहीं मिल सकते।

 आपको खौफ है, जैसे हम कोई चाकू लिए हुए हैं और उनकी नाक काट लेंगे।"

यूसुफ की दहाड़ से सेक्रेटरी साहब दबे। कहा, "हमें जैसी हिदायत है, हमने आपसे अर्ज कर दी।"

   0
0 Comments